Tuesday, May 22, 2018

ଗଙ୍ଗା ଜଳ ଅମୃତ



ବାରାଣସୀ, ୨୧/୫ : ଗଙ୍ଗାକୁ ହିନ୍ଦୁମାନଙ୍କ ସବୁଠାରୁ ପବିତ୍ରତମ ନଦୀ ବୋଲି କୁହାଯାଏ  । ଏଥିରେ ସାକ୍ଷାତ ଗଙ୍ଗାମାତା ବାସ କରୁଥିବାର ବିଶ୍ୱାସ ରହିଥିବାବେଳେ ଅନେକ ଦେବାଦେବୀ ମଧ୍ୟ ଏଠାକୁ ଆସିଥାନ୍ତି ବୋଲି ପୁରାଣରେ ବର୍ଣ୍ଣିତ ରହିଛି  । ତେବେ ଗଙ୍ଗା ଜଳର କେବଳ ଏକ ନଦୀର ଜଳ ନୁହେଁ ଏଥିରେ ବହୁତ କିଛି ଔଷଧୀୟ ଗୁଣ ରହିଛି ବୋଲି ଶୁଣିବାକୁ ମିଳିଥାଏ  । ଏଥିପାଇଁ ଗଙ୍ଗା ଜଳକୁ ଅମୃତ ବୋଲି କୁହାଯାଇଥାଏ  । ତେବେ କ’ଣ ପାଇଁ ଗଙ୍ଗା ଜଳକୁ ଅମୃତ ବୋଲି କୁହାଯାଏ ସେ ସମ୍ପର୍କରେ ବର୍ଷ ବର୍ଷ ଧରି ବୈଜ୍ଞାନିକମାନେ ଗବେଷଣା କରିଆସୁଥିବାବେଳେ ଏବେ ତାଙ୍କୁ ଏହାର ରହସ୍ୟ ଭେଦ କରିବାର ସଫଳତା ମିଳିଛି  । ସେମାନଙ୍କ କହିବାନୁସାରେ, ଲୋକମାନେ ଗଙ୍ଗାକୁ ଅଳିଆ କରିବାରେ କୌଣସି ସୁଯୋଗ ଛାଡ଼ନ୍ତି ନାହିଁ  । ଏଥିରେ ଶବ ଫୋପାଡ଼ି ଦିଅନ୍ତି, ଅଳିଆ ଆବର୍ଜନା ପକାନ୍ତି ଏବଂ ନାଳର ଦୂଷିତ ପାଣିବି ଏଥିରେ ଛାଡ଼ି ଦିଅନ୍ତି  । ତଥାପି ବି ଗଙ୍ଗାର ପାଣି ବିଲକୁଲ ଶୁଦ୍ଧ ଏବଂ ସବୁବେଳେ ସତେଜ ରୁହେ  । ଗଙ୍ଗା ନଦୀର ପାଣି କେବେ ବି ଖରାପ ନ ହେବାର କାରଣୁ ହେଉଛି ‘ଭୂତାଣୁ’  । ଆଜ୍ଞା ହଁ ଗଙ୍ଗା ଜଳରରେ ଏମିତି ଭୂତାଣୁ ପାଇବାକୁ ମିଳେ, ଯାହା ଏଥିରେ ବିଘଟନ ହେବାକୁ ଦିଏନି  । ତେବେ ଏହି ତର୍କକୁ ପ୍ରମାଣ ଆମକୁ ପାଖାପାଖି ୧୦୦ ବର୍ଷ ତଳକୁ ଯିବାକୁ ପଡ଼ିବ ବୋଲି ବୈଜ୍ଞାନିକ ମାନେ କହିଛନ୍ତି  । ସେମାନଙ୍କ କହିବାନୁସାରେ, ୧୮୯୦ ଦଶକରେ ପ୍ରସିଦ୍ଧ ବ୍ରିଟିଶ ବୈଜ୍ଞାନିକ ଅର୍ନେଷ୍ଟ ହ୍ୟାକିଙ୍ଗ୍ ଗଙ୍ଗାର ପାଣିକୁ ରିସର୍ଚ୍ଚ କରୁଥିଲେ  । ସେହି ସମୟରେ ହଇଜା ବ୍ୟାପ୍ତ ହୋଇଥିଲା  । ଲୋକମାନେ ମୃତ୍ୟୁବରଣ କରୁଥିବା ଲୋକଙ୍କ ଶବକୁ ଆଣି ଗଙ୍ଗା ନଦୀରେ ଫୋପାଡ଼ି ଦେଉଥିଲେ  । ହ୍ୟାକିଙ୍ଗଙ୍କୁ ଡର ଥିଲା ଯେ ଗଙ୍ଗା ନଦୀରେ ଗାଧୋଉଥିବା ଲୋକେ ମଧ୍ୟ ହଇଜାର ଶିକାର ହୋଇଯିବେ  । କିନ୍ତୁ ଏପରି ହୋଇନଥିଲା  । ତେବେ ଗଙ୍ଗାଜଳର ଏଭଳି ଚମକ୍ରାରୀ ପ୍ରଭାବ ଦେଖି ସେ ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟ ହୋଇଯାଇଥିଲେ  । ହ୍ୟାକିଙ୍ଗଙ୍କ ଏହି ଗବେଷଣାକୁ ପରବର୍ତ୍ତୀ ସମୟରେ ୨୦ ବର୍ଷ ପରେ ଜଣେ ଫ୍ରେଞ୍ଚ ବୈଜ୍ଞାନିକ ଆଗକୁ ବଢ଼ାଇଥିଲେ  । ସେ କରିଥିବା ଗବେଷଣାରୁ ଜଣାପଡ଼ିଥିଲା ଯେ, ଗଙ୍ଗା ଜଳରେ ମିଳୁଥିବା ଭୂତାଣୁ କଲେରା କାରକ ବ୍ୟାକ୍ଟେିଆରେ ପଶି ତାକୁ ନଷ୍ଟ କରିଦେଉଥିଲେ  । ଏହି ଭୂତାଣୁ ଗଙ୍ଗା ଜଳର ଶୁଦ୍ଧତା ବଜାୟ ରଖିବାରେ ଦାୟୀ ଥିଲେ  । ଆଜିକାଲିର ଗବେଷକ ଏହାକୁ ନିଞ୍ଜା ଭାଇରସ କୁହନ୍ତି  । ଅର୍ଥାତ୍ ଏହା ସେହି ଭାଇରସ ଯାହା ବ୍ୟାକ୍ଟେରିଆଙ୍କୁ ମାରେ  ।

Saturday, May 5, 2018

‘पांडववाडा !’ – प्राचीन वास्तुओंद्वारा भारत को मिला वैभवसंपन्न इतिहास का उपहार !


एरंडोल (जलगांव) का पांडववाडा !
जलगांव (महाराष्ट्र) नगर से २७ कि.मी. की दूरी पर एरंडोल तहसील का गांव है। यह गांव अर्थात महाभारतकाल की एकचक्रनगरी है ! एरंडोल का प्राचीन नाम ऐरणवेल / अरुणावती था। यह अंजनी नदी के किनारे पर बसा हुआ है।
महाभारत के लाक्षागृह घटना के उपरांत पांडव कुछ समय के लिए इसी एकचक्रनगरी में रहते थे। वे जिस बाडे में रहे थे, वह बाडा ही ‘पांडववाडा’ कहलाता है !
आज भी एरंडोल में पांडववाडा ऐतिहासिक वास्तु के रूप में प्रसिद्ध है। एरंडोल से १५ किलोमीटर की दूरी पर पद्मालय में जाकर भीम ने बकासुर का वध किया। आज भी पद्मालय से डेढ किलोमीटर पर भीमकुंड, भीम की चक्की तथा भीम एवं बकासुर की लडाई के संकेत देखने को मिलते हैं। एरंडोल में भीम की कटोरी अभी भी दिखाई देती है। बाडे के समीप ही स्थित कुएं को ”द्रौपदीकूप” कहते हैं।
अनेक पर्यटक महाभारतकाल के पांडववाडा एवं पद्मालय का भ्रमण करते हैं। शासकीय गॅझेट में (राजपत्र में) इस महाभारतकाल के पांडववाडे का उल्लेख ”पांडववाडा” के नाम से है। कुछ वर्ष पूर्व विद्यालय के अभ्यासक्रम में भी अभ्यास हेतु पांडववाडा का एक पाठ रखा गया था। अतः विद्यालय के विद्यार्थी भी पांडववाडे का भ्रमण करने हेतु पर्यटन पर आते थे।
पांडववाडा वास्तु ४५१५.९ वर्ग मीटर क्षेत्रफल में व्याप्त है। पांडववाडे के प्रवेशद्वार के पूर्व में स्थित पत्थरोंपर प्राचीन काल के खुदे हुए चित्रोंका अलंकरण है, जिनमें कमल के फूलोंकी चित्रकारी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। बाडे के पडोस में धर्मशाला है। ऐसा केवल हिन्दुओंके मंदिरोंके पडोस में पाया जाता है। अंदर प्रवेश करने पर दोनों बाजू की ओर खुला स्थान है। वहां की दीवारों में अनेक झरोखे हैं। इन प्राचीन झरोखोंपर समई तथा कमल के आकारों में चित्रकारी की गई है। बाडे के अंत में मंदिर के समान गर्भगृह है। उसके अंत में मूर्ति रखने का स्थान है, जो हिन्दू वास्तुरचना के समान है।
– श्री. सुनील घनवट, महाराष्ट्र संगठक, हिन्दू जनजागृति समिति (२३.२.२०१४)

वेदकाल से विकसित ‘वास्तुशास्त्र’ एवं ‘विज्ञान’ का उत्कृष्ट उदाहरण अर्थात ‘हिन्दुओंके देवालय’ !

वेदकाल से ही भारत के देवालयोंका वास्तुशास्त्र विकसित होने के प्रमाण के रूप में मंदिरोंकी ओर देखना संभव है। इन मंदिरों में विज्ञान एवं अध्यात्म का सुंदर समन्वय दिखाई देता है। मंदिरोंके वास्तुशास्त्र का अभ्यास कर समाज में उसे अवतरित करना ही आज के विज्ञानयुग के वास्तुशास्त्रज्ञोंके लिए बडी चुनौती है !

चुंबकीय शक्ति का उपयोग कर मंदिर की मूर्ति की प्रतिष्ठापना करना !

कहते हैं कि देश के पश्चिम किनारे पर सोमनाथ मंदिर में भी चुंबकीय शक्ति का उपयोग कर शिवलिंग अधर में रखा गया था। कोणार्क का सूर्यमंदिर अति विशाल था। इस मंदिर में चुंबकीय शक्ति का उपयोग कर सूर्य की मूर्ति की प्रतिष्ठापना की गई थी। मंदिर की चुंबकीय शक्ति का परिणाम सागर के जहाजोंपर भी दिखाई देता था।

प्राचीन शिव-मंदिरोंकी विशेषता !

‘शिव-देवालय’ की रचना प्राकृतिक पद्धति से वायु-निबद्ध (एयर कंडीशिंनग) की हुई दिखाई देती है। मंदिर के ‘गर्भगृह’ का निर्माण कार्य जमीन के निचे किया गया है, ऐसा दिखाई देता है।
१. सूर्यकिरणोंके अनुसार रचना : मंदिर की वास्तुनिर्मिती में वेदांत तथा योगशास्त्र के अतिरिक्त भौतिकशास्त्र का भी विचार पाया जाता है। कुछ मंदिरों में उत्कृष्ट दिक-बंधन (मंदिर की मूर्ति पर एक निश्चित दिन पर ही सूर्योदय की प्रथम किरणें पड़ेगी, ऐसी वास्तुरचना करना) दिखाई देता है। कुछ मंदिरोंके समक्ष ऐसे छोटे-छोटे झरोखे हैं, कि किसी भी ऋतु में सूर्य की किरणें मूर्ति पर ही पड़ती हैं। पुणे के समीप यवत गांव में स्थित एक छोटी पहाडी पर ऐसा शिवमंदिर है। कोणार्क के सूर्यमंदिर के स्थान पर खोदा हुआ चक्र केवल सूर्य-रथ का चक्र अथवा केवल शिल्प नहीं है। इस चक्र के आस की छाया ऐसी गिरती है कि जिस से अचूक रूप से मास, तिथि एवं समय समझना संभव है।
२. नादशास्त्र पर आधारित देवालय का स्तंभ : कन्याकुमारी के मंदिर में एक बाजू में सप्तस्वरोंके पथरीले स्तंभ एवं दूसरे बाजू में मृदंग के ध्वनिस्तंभ बिठाए गए हैं। पत्थर का नाद विशिष्ट स्वर में ही आए, इस हेतु इसका व्यास कितना लेना पडेगा, पत्थर को अंदर से कितना खोखला करना पडेगा, इसके पीछे इसका अचूक गणित एवं शास्त्र है।
३. हेमाडपंती देवालय : यह पत्थर एक-दूसरे में बिठाकर किया गया वास्तुरचना-कौशल्य का स्पष्ट एवं अनूठा उदाहरण है !